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 : व्रत कथा : 

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सत्यनारायण की कथा :

‘ पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ‘ एक समय की बात है कि, नैमिषारण्य तीर्थ पर शौनकादिक अटठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेता महर्षि श्री सूत जी से पूछा कि, हे महर्षि इस कलियुग में बिना वेद बिना विद्या के प्राणियों का उद्धार कैसे होगा ? क्या इसका कोई सरल उपाय है, जिससे उन्हें मनोवांछित फल की प्राप्ति हो । इस पर महर्षि सूत ने कहा कि, हे ऋषियो ऐसा ही प्रश्न एक बार नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था तब, स्वयं श्री हरि ने नारद जी को जो विधि बताई थी उसी को दोहरा रहा हूं । भगवान विष्णु ने नारद को बताया था कि, इस संसार में लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं अंत में परमधाम में जाने के लिये एक ही मार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत अर्थात सत्य का आचरण, सत्य के प्रति अपनी निष्ठा, सत्य के प्रति आग्रह । सत्य ईश्वर का ही रुप है उसी का नाम है । सत्याचरण करना ही ईश्वर की आराधना करना है, उसकी पूजा करना है । इसके महत्व को सपष्ट करते हुए उन्होंने एक कथा सुनाई कि, एक शतानंद नाम के गरीब ब्राह्मण थे, भिक्षा मांगकर अपना व परिवार का भरण-पोषण करते थे । लेकिन सत्य के प्रति निष्ठावान थे । सदा सत्य का आचरण करते थे । उन्होंने सत्याचरण व्रत का पालन करते हुए भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजा अर्चना की । जिसके बाद उन्होंने इस लोक में सुख का भोग करते हुए अंतकाल में सत्यपुर प्रवेश किया । इसी प्रकार एक काष्ठ विक्रेता भील व राजा उल्कामुख भी निष्ठावान सत्यव्रती थे । उन्होंनें भी सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा करके दुखों से मुक्ति पायी । आगे भगवान श्री हरि ने नारद को बताया कि, ये सत्यनिष्ठ सत्याचरण करने वाले व्रती थे, लेकिन कुछ लोग स्वार्थबद्ध होकर भी सत्यव्रती होते हैं । उन्होंने बताया कि साधु वणिक एवं तुंगध्वज नामक राजा इसी प्रकार के व्रती थे । उन्होंनें स्वार्थसिद्धि के लिये सत्यव्रत का संकल्प लिया, लेकिन स्वार्थ पूरा होने पर व्रत का पालन करना भूल गये । साधु वणिक की भगवान में निष्ठा नहीं थी, लेकिन संतान प्राप्ति के लिये सत्यनारायण भगवान की पूजा अर्चना का संकल्प लिया, जिसके फलस्वरुप उसके यहां कलावती नामक कन्या का जन्म हुआ । कन्या के जन्म के पश्चात साधु वणिक ने अपना संकल्प भूला दिया, और पूजा नहीं की । कन्या के विवाह तक पूजा को टाल दिया । फिर कन्या के विवाह पर भी पूजा नहीं की । और अपने दामाद के साथ यात्रा पर निकल पड़ा । दैवयोग से रत्नसारपुर में श्वसुर-दामाद दोनों पर चोरी का आरोप लगा । वहां के राजा चंद्रकेतु के कारागार में उन्हें डाल दिया गया । कारागार से मुक्त होने पर दंडीस्वामी से साधु वणिक ने झूठ बोल दिया कि, उसकी नौका में रत्नादि नहीं बल्कि, लता पत्र हैं। उसके इस झूठ के कारण सारी संपत्ति नष्ट हो गई । इसके बाद मजबूर होकर उसने फिर भगवान सत्यनारायण का व्रत रख उनकी पूजा की । उधर साधु वणिक के मिथ्याचार के कारण उसके घर में भी चोरी हो गई । परिजन दाने-दाने को मोहताज हो गये । साधु वणिक की बेटी कलावती अपनी माता के साथ मिलकर भगवान सत्यनारायण की पूजा कर रही थी कि, उन्हें पिता साधु वणिक व पति के सकुशल लौटने का समाचार मिला । वह हड़बड़ी में भगवान का प्रसाद लिये बिना, पिता व पति से मिलने के लिये दौड़ पड़ी, जिस कारण नाव एवं साधु वाणिक और दामाद समुद्र में डूबने लगे। तभी कलावती को अपनी भूल का अहसास हुआ । वह दौड़कर घर आयी, और भगवान का प्रसाद लिया । इसके बाद सब ठीक हो गया । इसी तरह राजा तुंगध्वज ने भी गोपबंधुओं द्वारा की जा रही भगवान सत्यनारायण की पूजा की अवहेलना की, और पूजास्थल पर जाने के बाद भी प्रसाद ग्रहण नहीं किया । जिस कारण उन्हें भी अनेक कष्ट सहने पड़े । अंतत: उन्होंने भी बाध्य होकर भगवान सत्यनारायण का व्रत रखा । एवं पूजा किया ।

अतः कहानी का निष्कर्ष यही है कि, भगवान सत्यनारायण की पूजा प्रत्येक पूर्णिमा को करनी चाहिये, एवं हमें सत्याचरण का व्रत लेना चाहिये । यदि हम भगवान सत्यनारायण की पूजा नहीं करते तो, उसकी अवहेलना कभी नहीं करनी चाहिये, और आदर पूर्वक प्रसाद ग्रहण करना चाहिये ।

सत्यनारायण कथा सनातन (हिंदू) धर्म के अनुयायियों में लगभग पूरे भारतवर्ष में प्रचलित है । सत्यनारायण भगवान विष्णु को ही कहा जाता है । भगवान विष्णु जो कि समस्त जग के पालनहार माने जाते हैं । लोगों की मान्यता है कि, भगवान सत्यनारायण का व्रत रखने उनकी कथा सुनने से मनुष्य मात्र के सभी कष्ट मिट जाते हैं । सत्यनारायण व्रतकथा का उल्लेख स्कंदपुराण के रेवाखंड में मिलता है ।

सत्यनारायण व्रत और कथा को करने की विधि- इस पूजा को सम्पूर्ण करने के दो मुख्य प्रकार हैं – व्रत और कथा। कुछ लोग भगवान विष्णु जी के लिए व्रत कर इस आयोजन को पूर्ण करते हैं तो कुछ जन घर में सत्यनारायण जी की पूजा (एक कथा) को कराकर इसे पूर्ण रूप देते हैं। सत्यनारायण जी की पूजा को विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूरा करवाय जाना चाहिये। पूजा को करने के लिए सबसे उत्तम समय प्रातःकाल 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक बताया जाता है। इस पूजा में दिन भर व्रत रखा जाता है। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाया जाता है और उस पर चौकी रखी जाती है। चौकी के चारों पायों के पास केले के पत्तों से सजावट करें फिर इस चौकी पर अष्टदल या स्वस्तिक बनाया जाता है। इसके बीच में चावल रखें, लाल रंग का कपड़ा बिछाकर पान सुपारी से भगवान गणेश की स्थापना करें। अब भगवान सत्यनारायण की तस्वीर रखें, श्री कृष्ण या नारायण की प्रतिमा की भी स्थापना करें। सत्यनारायण के दाहिनी ओर शंख की स्थापना करें व साथ ही पवित्र या स्वच्छ जल से भरा कलश भी रखें। कलश पर शक्कर या चावल से भरी कटोरी भी रखें। कटोरी पर नारियल भी रखा जा सकता है। बायीं ओर दीपक रखें। अब चौकी के आगे नवग्रह मंडल बनाएं। इसके लिये एक सफेद कपड़े को बिछाकर उस पर नौ जगह चावल की ढेरी रखें। अब पूजा शुरु करें। प्रसाद के लिये पंचामृत, गेंहू के आटे से बनी पंजीरी, फल आदि को कम से कम सवाया मात्रा में लें। सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा करें, उसके बाद इंद्रादि दशदिक्पाल की फिर अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने के बाद सत्यनारायण की पूजा करें। भगवान सत्यनारायण के बाद मां लक्ष्मी व अंत में भगवान शिव और ब्रह्मा की पूजा करनी चाहिये। पूजा में सभी तरह की पूजा सामग्रियों का प्रयोग होता है और ब्राह्मण द्वारा सुनाई जा रही कथा को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। सत्यनारायण जी की पूजा के बाद सभी देवों की आरती की जाती है और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण किया जाता है। श्री सत्यनारायण का पूजन महीने में एक बार पूर्णिमा या संक्रांति को किया जाना चाहिए।

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